जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 – 15 नवंबर 1937) हिंदी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख कवि, नाटककार, उपन्यासकार और कहानीकार थे। वे हिंदी साहित्य में एक युग-प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने कविता, नाटक, और गद्य साहित्य में अपनी अनूठी छाप छोड़ी। उनकी रचनाएँ भावनात्मक गहराई, दार्शनिक चिंतन और भारतीय संस्कृति के प्रति गहरे लगाव को दर्शाती हैं।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

जयशंकर प्रसाद का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी में एक वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता, बाबू देवी प्रसाद, एक प्रसिद्ध तंबाकू व्यापारी थे, जिन्हें ‘सुंघनी साहू’ के नाम से जाना जाता था। प्रसाद की माता का निधन उनके बचपन में ही हो गया था, जिसका उनके भावुक स्वभाव पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही संस्कृत, हिंदी, उर्दू और फारसी के विद्वानों से प्राप्त की। क्वींस कॉलेज, वाराणसी में कुछ समय तक पढ़ाई करने के बाद, पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण उन्होंने औपचारिक शिक्षा छोड़ दी। फिर भी, उन्होंने स्वाध्याय के माध्यम से साहित्य, दर्शन और इतिहास का गहन अध्ययन किया, जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकता है।

साहित्यिक यात्रा की शुरुआत

प्रसाद ने अपनी साहित्यिक यात्रा कविता से शुरू की। उनकी पहली काव्य रचना ‘चित्राधार’ 1918 में प्रकाशित हुई, जिसमें छायावादी शैली की झलक दिखाई दी। छायावाद, जो हिंदी कविता में प्रकृति, प्रेम और आत्माभिव्यक्ति को सूक्ष्म और प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है, प्रसाद के लेखन का आधार बना। उनकी कविताएँ ‘कानन-कुसुम’, ‘महाराणा का महत्व’, और ‘प्रेम-पथिक’ ने पाठकों को भावनात्मक और दार्शनिक स्तर पर प्रभावित किया। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति और वेदांत दर्शन का समावेश होता था, जो उन्हें समकालीन कवियों से अलग करता था।

प्रमुख रचनाएँ

प्रसाद की सबसे प्रसिद्ध रचना ‘कामायनी’ (1935) एक महाकाव्य है, जो छायावाद का सर्वोच्च उदाहरण माना जाता है। इस काव्य में मनु और श्रद्धा के प्रतीकात्मक पात्रों के माध्यम से मानव जीवन, प्रेम, और आध्यात्मिकता का चित्रण किया गया है। ‘कामायनी’ में प्रसाद ने मनुष्य के अंतर्द्वंद्व और प्रकृति के साथ उसके संबंध को गहनता से उकेरा। इसके अतिरिक्त, उनके नाटक जैसे ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंदगुप्त’, और ‘ध्रुवस्वामिनी’ ऐतिहासिक और सामाजिक विषयों पर आधारित हैं। ये नाटक भारतीय इतिहास और संस्कृति को जीवंत करते हैं। उनकी कहानियाँ, जैसे ‘ममता’, ‘आकाशदीप’, और ‘इंद्रजाल’, मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक मुद्दों को उजागर करती हैं। प्रसाद के उपन्यास ‘कंकाल’ और ‘तितली’ सामाजिक सुधार और मानव मन की जटिलताओं को दर्शाते हैं।

साहित्य में योगदान और छायावाद

प्रसाद ने हिंदी साहित्य में छायावाद को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके समकालीन कवि जैसे सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साथ मिलकर उन्होंने हिंदी कविता को नई दिशा दी। उनकी कविताओं में प्रकृति और मानव भावनाओं का सूक्ष्म चित्रण, साथ ही भारतीय दर्शन का समावेश, छायावाद की विशेषता बन गया। प्रसाद ने हिंदी नाटक और गद्य साहित्य को भी समृद्ध किया। उनके नाटकों में नाटकीयता और ऐतिहासिक सटीकता का अनूठा मिश्रण है, जो हिंदी रंगमंच के लिए एक नया आयाम लाया। उनकी कहानियाँ और उपन्यास सामाजिक यथार्थ और मानवीय मूल्यों को संतुलित करते हैं।

जीवन के अंतिम वर्ष और प्रभाव

प्रसाद का जीवन आर्थिक तंगी और व्यक्तिगत त्रासदियों से भरा था। उनके पिता और बड़े भाई के निधन के बाद, पारिवारिक व्यवसाय की जिम्मेदारी उन पर आ गई, जो असफल रही। इसके बावजूद, उन्होंने साहित्य सृजन में कोई कमी नहीं आने दी। 1937 में, मात्र 48 वर्ष की आयु में, तपेदिक (टीबी) के कारण उनका निधन हो गया। उनके निधन ने हिंदी साहित्य जगत में एक शून्य पैदा किया। प्रसाद का प्रभाव आज भी हिंदी साहित्य में जीवित है। उनकी रचनाएँ स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जाती हैं, और ‘कामायनी’ को हिंदी साहित्य का एक अमर ग्रंथ माना जाता है।

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